लखनऊ: उत्तर प्रदेश में दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव (Vidhan Sabha Election) के लिए अभी से सियासी चालें चलनी शुरू हो गई हैं। बसपा प्रमुख मायावती के सामने अपना राजनीतिक अस्तित्व और अपने वोट बचाने की चुनौती है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव बसपा के बिखरते दलित वोट बैंक को साधने के जरिए अपनी राजनीतिक नैया पार लगाना चाहते हैं। रामजीलाल के साथ खड़े होने की बात हो या इंद्रजीत सरोज का बयान, इसे सपा के दलित वोट गोलबंदी के नजरिए से देखा जा रहा है। मायावती सपा की दलित राजनीति से बेचैन नजर आ रही हैं। ऐसे में मायावती दलित समुदाय के साथ-साथ मुसलमानों को भी सपा से दूर रहने की सलाह दे रही हैं।
ठाकुर रंग देने की कोशिश की
सपा सांसद रामजीलाल सुमन द्वारा राणा सांगा पर दिए गए बयान पर राजनीति गरमा गई है। करणी सेना ने रामजीलाल सुमन के खिलाफ आक्रामक रुख अपना लिया है और आगरा में ठाकुर समाज के लोगों ने विरोध प्रदर्शन कर उन्हें सीधी चुनौती दी है। सपा ने रामजीलाल के समर्थन में खड़े होकर पूरे मामले को दलित बनाम ठाकुर रंग देने की कोशिश की है। अखिलेश यादव 19 अप्रैल को आगरा पहुंचेंगे, जहां वह रामजीलाल सुमन के आवास पर जाकर उनसे मुलाकात करेंगे और दलित समाज को राजनीतिक संदेश देंगे।
अखिलेश के आगरा दौरे से पहले मायावती ने सपा की दलित राजनीति पर सवाल उठाए हैं। बसपा प्रमुख मायावती ने गुरुवार को ट्वीट कर सपा पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि जगजाहिर है कि अन्य पार्टियों की तरह सपा भी अपने दलित नेताओं से तनाव और हिंसा का माहौल पैदा करने वाले बयान दिलवा रही है, जिस पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है। यह संकीर्णता और स्वार्थ की राजनीति है।
बचने की सलाह दे रही
सपा भी दलित वोटों की खातिर किसी भी हद तक जा सकती है। दलितों के साथ-साथ ओबीसी और मुसलमानों को भी इस पार्टी की राजनीतिक चालों से दूर रहना चाहिए और उनके किसी भी आक्रामक उकसावे का शिकार नहीं बनना चाहिए। मायावती ने आगे कहा कि दूसरों के इतिहास पर टिप्पणी करने के बजाय, यह उचित होगा कि ऐसी पार्टियों से जुड़े अवसरवादी दलित नेता उन्हें अपने समाज के संतों, गुरुओं और महापुरुषों की अच्छाइयों और संघर्ष के बारे में बताएं, जिनकी बदौलत ये लोग किसी लायक बने हैं। इस तरह मायावती दलित समाज को सपा के दलित नेताओं के बहकावे में आने से बचने की सलाह दे रही हैं। इसके साथ ही वह मुस्लिम और पिछड़ों से भी सपा से दूर रहने की अपील कर रही हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश अपने पीडीए दांव से 37 सीटें जीतने में कामयाब रहे।
नेताओं को अहमियत दी जा रही
सपा ने 2027 का चुनाव पीडीए यानी पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक की राजनीति के साथ लड़ने की योजना बनाई है। अखिलेश की नजर पीडीए की राजनीति को और मजबूत करने पर है, जिसके लिए उनकी नजर मायावती के वोटरों पर है। अखिलेश यादव दो तरह से इस मिशन में लगे हैं। सपा में दलित नेताओं को अहमियत दी जा रही है। अखिलेश अब यादव और मुस्लिम नेताओं को अपने इर्द-गिर्द रखने के बजाय दलित नेताओं को साथ लेकर चलते हैं। इसी कड़ी में सपा ने बसपा के पुराने नेता दद्दू प्रसाद को अपने पाले में शामिल कर लिया है।
राणा सांगा पर बयान के बाद जब करणी सेना ने सपा के दलित सांसद रामजीलाल सुमन के घर पर हमला किया तो अखिलेश यादव और उनकी पार्टी ने सुमन के समर्थन में हुंकार भरी। आगरा में करणी सेना ने एकजुट होकर रामजीलाल सुमन के खिलाफ अपनी ताकत का डंका बजाया तो अखिलेश ने भी आगरा जाकर रामजीलाल सुमन से मिलने का प्लान बनाया। हाल ही में आगरा में रामजीलाल सुमन के खिलाफ करणी सेना के सम्मेलन के बाद उपजे हालात पर वह अपनी रणनीति का ऐलान कर सकते हैं, क्योंकि आगरा दलित राजनीति का बड़ा केंद्र माना जाता रहा है।
कोई बड़ा ऐलान कर सकते
अधिकांश राजनीतिक दल आगरा से दलित राजनीति की शुरुआत करते रहे हैं, जिस तरह से अखिलेश यादव लगातार इस मुद्दे पर रामजीलाल सुमन के साथ खड़े हैं और दलितों के साथ होने की बात कर रहे हैं, दलितों के खिलाफ बोलने वालों को नसीहत दे रहे हैं, उससे लगता है कि अखिलेश यादव 19 तारीख को आगरा से कोई बड़ा ऐलान कर सकते हैं। रामजीलाल सुमन ने करणी सेना को चेतावनी दी है कि मैदान तैयार है, आमने-सामने हो जाओ। सपा के दलित विधायक इंद्रजीत सरोज ने मंदिरों और देवी-देवताओं को लेकर विवादित बयान दिया था।
अखिलेश ने इंद्रजीत सरोज के बयान का समर्थन तो नहीं किया, लेकिन वे रामजीलाल सुमन के साथ मजबूती से खड़े हैं। दलित वोटों के लिहाज से सपा रामजीलाल के साथ खड़े होने को अपने लिए फायदेमंद मान रही है। सपा का पूरा फोकस दलित वोट बैंक को जोड़ने पर है, जिसके लिए वह बसपा पृष्ठभूमि वाले नेताओं को जोड़ रही है। अंबेडकर जयंती के मौके पर सपा ने स्वाभिमान-स्वामन समारोह का आयोजन कर दलितों को संदेश दिया। ऐसे में मायावती को अपने दलित वोट बैंक के बिखरने का खतरा नजर आ रहा है।
धानसभा सीट पर जीत मिली
बसपा अपने राजनीतिक इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। चुनाव दर चुनाव बसपा का वोट घटता जा रहा है। 2024 में बसपा का खाता नहीं खुला और 2022 में पार्टी को सिर्फ एक विधानसभा सीट पर जीत मिली। बसपा का राजनीतिक ग्राफ गिरकर 9.39 फीसदी पर आ गया है। सपा की नजर बसपा के बिखरे दलित वोट बैंक पर है और अखिलेश उसे एकजुट करने के लिए हर हथकंडा आजमा रहे हैं। अखिलेश यादव ने तो अपनी पार्टी का डीएनए बदलने का भी फैसला कर लिया है और वे सात दलित वोट बैंकों यादव, पिछड़ा और अल्पसंख्यक को एकजुट करना चाहते हैं ताकि वे बीजेपी को सत्ता की हैट्रिक लगाने से रोक सकें।
दलित राजनीति के बहाने अखिलेश यादव यह माहौल बनाना चाहते हैं कि बीएसपी का समय खत्म हो चुका है। अब बीएसपी के साथ रहने से कोई फायदा नहीं है। बीजेपी को रोकने के लिए सपा ही एकमात्र विकल्प है। इसी योजना के तहत अखिलेश ने जिला स्तर तक बीएसपी नेताओं को एकजुट करने का फैसला किया है। हर दस से पंद्रह दिन में सपा में इस तरह के कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। मायावती की पार्टी के नेताओं को हाथी से उतारकर सपा की साइकिल पर सवार किया जाएगा। सपा की सोशल इंजीनियरिंग के चलते बीएसपी को अपने समीकरण बिगड़ने का खतरा सता रहा है, जिसके चलते मायावती सतर्क हो गई हैं।
राजनीतिक आधार बढ़ा रहे
अखिलेश यादव का फोकस अपने पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) फॉर्मूले को और मजबूत करने पर है। मायावती सपा की इस रणनीति को बखूबी समझती हैं और उन्हें लगता है कि अगर दलित वोट खिसक गया तो 2027 के चुनाव में भी 2022 और 2024 जैसा ही हश्र हो सकता है। इतना ही नहीं चंद्रशेखर आजाद दलितों के बीच तेजी से अपना राजनीतिक आधार बढ़ा रहे हैं, जिसके चलते दलित युवा भी उनकी ओर आकर्षित हो रहे हैं। कांग्रेस की भी दलित समुदाय के वोट बैंक पर नजर है। कांग्रेस ने गुजरात के अहमदाबाद अधिवेशन में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को लेकर अपने प्रस्ताव पारित किए हैं और सामाजिक न्याय के एजेंडे पर आगे बढ़ने का फैसला किया है।
फ्रंटफुट पर आना पड़ा
सपा से कांग्रेस की ओर दलित वोट बैंक पर फोकस होने से मायावती असहज महसूस कर रही हैं। मायावती जानती हैं कि अगर सपा की आक्रामक राजनीति के चलते जाटव वोट भी उनके हाथ से खिसक गया तो 2027 में बसपा का राजनीतिक अस्तित्व बचाना मुश्किल हो जाएगा। सपा की आक्रामक राजनीति का मुकाबला करने के लिए मायावती को फ्रंटफुट पर आना पड़ा है। इसी के मद्देनजर आकाश आनंद की बसपा में वापसी की पटकथा लिखी गई है ताकि युवा दलितों को अपने पाले में रखा जा सके। अब मायावती खुद दलितों के साथ-साथ ओबीसी और मुसलमानों को भी सपा से दूर रहने की सलाह दे रही हैं। इतना ही नहीं, वे दलित नेतृत्व को राजनीतिक सीख भी दे रही हैं.
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