नई दिल्ली। इलाहाबाद हाईकोर्ट (Allahabad High Court) ने अलग-अलग धर्म को मानने वाले के ‘लिव-इन’ रिलेशनशिप (Live in Relationship) को रिश्ते को लेकर कहा कि यर रिश्ते स्थाई नहीं होते हैं।
कोर्ट ने कहा कि जब तक जोड़ों की शादी नहीं होती तब तक नाम देने को तैयार न हो। अदालत ने यह भी कहा कि लिव-इन रिश्ते “अस्थायी और नाजुक” हैं।
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सुप्रीम कोर्ट ने कई मौकों पर लिव-इन रिलेशनशिप को वैध ठहराया है, हाई कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं की कम उम्र और साथ रहने में बिताए गए समय पर सवाल उठाया कि क्या यह सावधानीपूर्वक विचार किया गया निर्णय था।
कोर्ट ने कहा कि जीवन फूलों की सेज नहीं, बल्कि यह एक बहुत ही महत्वूर्ण और मुश्किल समय होता है। कोर्ट ने हस्तक्षेप करने से इंकार करते हुए याचिका खारिज कर दी है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कई मामलों में लिव-इन रिलेशनशिप को वैध ठहराया है, लेकिन 20-22 साल की उम्र में दो महीने की अवधि में, हम यह उम्मीद नहीं कर सकते कि यह जोड़ा सक्षम हो पाएगा।
इस प्रकार के अस्थायी संबंधों पर गंभीरता से विचार करना। अदालत ने आगे टिप्पणी करते हुए कहा कि लिव-इन रिश्ते “अस्थायी और नाजुक” होते हैं और “टाइमपास” में बदल जाते हैं।
“जिंदगी गुलाबों की सेज नहीं है। हमारा अनुभव बताता है कि इस प्रकार के रिश्ते अक्सर टाइमपास, अस्थायी और नाजुक होते हैं और, इस तरह, हम किसी भी तरह की सुरक्षा देने से बचते हैं।
कोर्ट ने आगे कहा कि हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में लिव-इन रिलेशनशिप को पहले से ही मान्यता दी है। लेकिन, दो महीने की अवधि में और वह भी 20-22 साल की उम्र में जोड़े इस प्रकार के अस्थायी रिश्ते पर शायद ही गंभीरता से विचार कर पाएंगे।
एक दंपति ने पुलिस सुरक्षा की मांग करते हुए एक याचिका दायर की थी और भारतीय दंड संहिता की धारा 366 के तहत महिला की चाची द्वारा पुरुष के खिलाफ दर्ज की गई एफआईआर को रद्द करने की मांग की थी। मौसी ने महिला की मां पर दावा करते हुए केस दर्ज कराया था।
चाची ने आरोप लगाया था कि वह आदमी “रोड-रोमियो और आवारा” था जिसका कोई भविष्य नहीं था और वह उसकी भतीजी की जिंदगी बर्बाद कर देगा। उन्होंने बताया कि उस व्यक्ति का नाम पहले से ही यूपी गैंगस्टर एक्ट की धाराओं के तहत एक एफआईआर में दर्ज किया गया था।
हालांकि, महिला ने अपनी उम्र (20) का हवाला देते हुए कहा कि उसे अपना भविष्य तय करने का अधिकार है। उसने आगे तर्क दिया कि उसके पिता ने इस मामले में मामला दर्ज नहीं कराया था।
दोनों पक्षों पर विचार करने के बाद अदालत ने फैसला सुनाया कि याचिकाकर्ताओं द्वारा दी गई दलीलें एफआईआर रद्द करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं हैं।
इसमें यह भी कहा गया है कि जब तक जोड़े ने शादी करने और अपने रिश्ते को नाम देने या एक-दूसरे के प्रति अपनी ईमानदारी दिखाने का फैसला नहीं किया, तब तक वह “इस तरह के रिश्ते पर कोई भी राय व्यक्त करने से बचते हैं और बचते हैं”।